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परम्परागत औषधी विज्ञान की ऐतिहासिक यात्रा

डा. के.एल. दहिया*
*पशु चिकित्सक, राजकीय पशु हस्पताल, हमीदपुर (कुरूक्षेत्र)
पशुपालन एवं डेयरी विभाग, हरियाणा

परम्परागत औषधी विज्ञान, उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता है। मानव ने अपनी आवश्यकतानुसार पशुओं को पालना शुरू किया और उनका उपचार भी मनुष्य द्वारा उनके पालने के साथ ही सहस्राब्धियों पुराना ही है। मानव द्वारा पशुओं के पालतुकरण की निम्नलिखित अनुमानित समयावधि इस प्रकार है :

पशुधन प्रजाति अनुमानित अवधि
कुत्ता (Canis familaris) 13,000–17,000 ई.पू.
यूरोपीयन गाय (Bos taurus) 11,000–10,500 ई.पू.
भारतीय गाय (Bos indicus) 9000 ई.पू.
भेड़ (Ovis aries) 12,000 ई.पू.
बकरी (Capra hircus) 11,000 ई.पू.
सुअर (Sus domesticus) 10,500 ई.पू.
गधा (Equus asinus asinus) 4800 ई.पू.
घोड़ा (Equus caballus) 5000–4000 ई.पू.
एक कूब वाला ऊँट (Dromedary camel) 5000 ई.पू.
दो कूब वाला ऊँट (Bactrian camel) 4600 ई.पू.
Source : Driscoll, Macdonald and O’Brien 2009

उपरोक्त सारणी के अनुसार सबसे पहले कुत्तों को 13000 – 17000 ईसावर्ष पूर्व मध्य यूरोप में पाला गया था (Driscoll et al. 2009) लेकिन ठोस पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि विश्व में 6000 – 4500 ईसावर्ष पूर्व सबसे पहले कुत्तों, भैंसों, हाथियों एवं मुर्गों को भारत में पाला गया था जिसके पुखता प्रमाण 2500 ईसावर्ष पूर्व विश्व की प्राचीनतम उन्नत सभ्यताओं – मोहनजोदड़ो, हड़प्पा एवं उत्तरी भारत के अन्य भागों में मिले हैं (Somvanshi 2006)।

प्राचीन भारतीय साहित्य पशुओं की देखभाल, स्वास्थ्य प्रबंधन और बीमारियों के इलाज के बारे में जानकारी से भरा हुआ है जिसका विवरण आदिमानव की गुफाओं में पुरुषों और पशुओं के चित्रों में दर्शाया गया है (Somvanshi 2006)। सिंधु घाटी से बरामद मोहरों पर बैल, भैंस, बकरी, हाथी, आइबेक्स और कई अन्य जानवरों का ज्ञान मिलता है। इन मुहरों पर लिपि अब तक पूरी तरह से विखंडित नहीं हुई है। भारत में वैदिक समाज पर ‘गाय संस्कृति’ का प्रभुत्व था और वैदिक लोग गाय को मानते थे और इसे अपने सौभाग्य, खुशी और अच्छे स्वास्थ्य का स्रोत मानते थे (ऋग्वेद 6.28.1, 6)। यह माना जाता है कि धार्मिक पुजारी, जिनके पास पशुओं को बचाए रखने की जिम्मेदारी थी, पहले पशु चिकित्सक थे। कई वैदिक भजन जड़ी बूटियों के औषधीय मूल्यों को दर्शाते हैं तथा यह संभावना व्यक्त की जाती है कि ये पुजारी इसके लिए उपयुक्त थे और पशुओं को बीमारियों से मुक्त रखने के लिए उनके चिकित्सा ज्ञान का उपयोग किया जाता था। अथर्वेवेद में जड़ी बूटियों और औषधियों के बारे में उल्लेख है। आयुर्वेद (जीवन विज्ञान) वैदिक संतों के पास मौजूद चिकित्सा के ज्ञान से संबंधित है (Somvanshi 2006)।

उत्तर वैदिक काल : उत्तर वैदिक काल को लौह काल भी कहा जाता है जिसमें दो महाकाव्य – रामायण (2000 ईसा पूर्व) और महाभारत (1400 ईसा पूर्व) सम्मिलित हैं, में वैदिक काल के बाद के आर्यों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को चित्रित करता है। उत्तर वैदिक काल में औषधीय, जड़ी-बूटियों और शल्यचिकित्सा की प्रक्रियाओं का उपयोग कर विभिन्न रोगों के उपचार के बारे में विस्तार से बताया गया है। परिरक्षक और उपचार के रूप में तेल के विभिन्न उपयोगों का उल्लेख किया गया है। शल्यचिकित्सा प्रक्रियाएं जैसे कि बच्चेदानी का आपरेशन, बच्चेदानी को निकालना आदि को प्रशिक्षित वैद्यों या चिकित्सकों द्वारा किया जाता था। इस काल में अर्जुन, कुटज, कदम्ब, नीम, अशोक, इत्यादि अनेक पेड़-पौधों का उपयोग मनुष्य एवं पशुओं के इलाज के लिए किया जाता था।

मौर्य काल : मौर्य काल (322-232 ईसा पूर्व) में पशुपालन ने काफी प्रगति की। मौर्य काल से पहले बुद्ध और महावीर की अवधि थी, जिन्होंने पशुओं के प्रति अहिंसा का प्रचार किया। सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ “सुत्तनिपाता” पशुओं को भोजन, सौंदर्य, और खुशी के दाता के रूप में वर्णित करता है और इसलिए यह संरक्षित किए जाने के हकदार हैं। मौर्य काल में पशु चिकित्सा सेवाएं आवश्यक सेवाएं थीं।

सम्राट अशोक का काल : सम्राट अशोक (लगभग 300 ईसा पूर्व) के काल में पशु चिकित्सा सर्वश्रेष्ठ थी और इसी से प्रेरित होकर भारत में वर्तमान पशु चिकित्सा परिषद ने सम्राट अशोक के काल से एक बैल की मूर्ति और एक पत्थर के शिलालेख को सम्मानचिन्ह के रूप में अपनाया है (Singh 2002)। सम्राट अशोक ने पशु चिकित्सा विज्ञान को भारत में एक नया मोड़ दिया। यह वर्णित है कि सम्राट अशोक के शासन में भारत का पहला पशु चिकित्सा अस्पताल मौजूद था (Schwabe 1978)। माना जाता है कि सूरती का ‘वट अस्पताल’ उनमें से एक है, जिसमें ऊँची दीवारों से घिरी हुई भूमि का एक बड़ा हिस्सा शामिल था। उसमें रोगी पशुओं को रखने का प्रावधान किया गया था।

सुश्रुत : धन्वंतरी के शिष्य सुश्रुत (600 ईसा पूर्व) द्वारा लिखित सुश्रुत संहिता, शल्य चिकित्सा से संबंधित सबसे पहला ज्ञात कार्य है। सुश्रुत ने सर्जरी की सामान्य तकनीकों में बहुत सुधार किया और कई नए और बड़े ऑपरेशन किए।

शालिहोत्र : दुनिया के पहले ज्ञात पशु चिकित्सक, शालिहोत्र, घोड़ा पालन और चिकित्सा में एक विशेषज्ञ थे और उन्होंने ‘हया आयुर्वेद’ की रचना की और शालिहोत्र निस्संदेह पूर्व-ऐतिहासिक काल के पहले पशु चिकित्सक प्रतीत होते हैं। शालिहोत्र भारतीय पशु चिकित्सा विज्ञान के जनक कहे जाते हैं।

ऋषि पालकप्य : ऋषि पालकप्य हाथियों के रोगों से निपटने वाले एक विशेषज्ञ थे और उन्होंने एक ग्रंथ ‘गज आयुर्वेद’ की रचना की जिसको उसने चार भागों – 1. प्रमुख रोग, 2. क्षुद्र रोग, 3. शल्य चिकित्सा, और 4. आहार एवं स्वच्छता इत्यादि में वर्णित किया है। उन्होंने हाथियों की विभिन्न बीमारियों को शारीरिक, आकस्मिक, मानसिक और त्रिदोष विकारों में वर्गीकृत किया है।

सर्प विष एक मूल्यवान औषधि के रूप में : प्राचीन भारत को तक्षशिला में विषाक्त और हर्बल अनुसंधान का उन्नत केंद्र होने का गौरव प्राप्त था। भारतीय इतिहास के अनुसार, जैसा कि रस ग्रंथ में वर्णित है औषधी के रूप में सांप के जहर के उपयोग में भारतीय अग्रणी थे। प्राचीन काल के दौरान, यह लोकप्रिय रूप से जाना जाता था कि बहुत कम मात्रा में, मुख मार्ग द्वारा दिया गया सांप का जहर सबसे शक्तिशाली उत्तेजक में से एक था और यदि सांप का जहर पशुओं के पित्त के साथ मिलाया जाता है, तो इसकी गतिविधि पूरी तरह से भिन्न हो जाती है। इस दौरान सांप के जहर से तैयार की जाने वाली औषधीयां इस प्रकार थीं :

  1. सुचिकाभरण – पारा, सल्फर, सीसा और कुचला (Aconitum) को बराबर भागों में मिलाकर रोहू मछली/जंगली सूअर/मोर/भैंस/बकरी के पित्तरस में भिगोया जाता था और फिर इसको एक ठंडी जगह में रखकर सुखाया जाता था और फिर इसका पाउडर बनाया जाता था। इसको थोड़ी सी खुराक में (“सुई की नोक” बराबर) दिया जाता था, यह प्लेग, बुखार, मुर्छा, तपेदिक, आदि जैसे कई रोगों में प्रभावी था।
  2. अर्धनारीश्वर रस – पारा, सल्फर, कुचला की जड़ और सोहागा (Borax) के प्रत्येक एक-एक भाग को मिलाकर महीन चुर्ण बनाया जाता था। फिर इस मिश्रण को काले कोबरा सांप के मुँह में डाला जाता था और मुँह को कीचड़ से बंद कर दिया जाता था और इसको हल्की तपिश में लगातार 12 घंटे तक पकाया जाता था। तैयार औषधी को महीन चूर्ण में पीस लिया जाता था जिसे असाध्य बुखार में सुंघाया जाता था।

इसी प्रकार, अन्य औषधीयां, जैसे कि, बृहत् सुचिकाभरण, अघोरीनृसिंहरण, और कालानल रस भी अलग-अलग साँपों के जहर से तैयार किए गए थे। वर्तमान में भी, होमियोपैथी चिकित्सा प्रणाली में, सांप के जहर से कुछ उत्कृष्ट दवाएं जैसे कि लाचेसिस, सेन्क्रिस कॉन्टोर्टिक्स, टॉक्सिकोफिस, बोथ्रोप्स लान्सियोलेट्स और लाचेसिस लान्सियोलेट्स भी तैयार की जाती हैं (Srivastava 2002)।

चरक संहिता : परजीवी, उनके संचरण और नियंत्रण के बारे में चरक संहिता 1000 ईसा पूर्व लिखा एक प्रमाणिक दस्तावेज है। इसके अतिरिक्त, चरक संहिता में अगड़ा योग के माध्यम से विष एवं इसके प्रबंधन के बारे में बताया गया है (Sutherland 1919, Aravind et al. 2017)।

एथनो-पशु चिकित्सा : चिकित्सा की आधुनिक एलोपैथिक प्रणाली के आगमन से पहले, यह संभव लगता है कि भारत सहित पूरी दुनिया में मानव एवं पशु चिकित्सा पद्दति लगभग एक समान थी (Ramdas and Ghotge 2004)। भारतीय चिकित्सा पद्धति का 5000 वर्ष पूर्व का इतिहास 1. संहिताबद्ध पद्दति एवं 2. गैर-संहिताबद्ध – मौखिक या लोक स्वास्थ्य परंपराएं, में निहित है।

पारंपरिक आरोग्यसाधक (पशू वैद्य)

संहिताबद्ध पद्दति में प्रमाणीकृत शारीरिक कार्यप्रणाली के सिद्धांत एवं रोग हेतुविज्ञान और नैदानिक पद्दतियों पर आधारित है। जबकि गैर-संहिताबद्ध पद्दति मानव की तरह पुरानी है और इसका संहिताबद्ध पद्दति के साथ प्रतीकात्मक संबंध है। यह समयानुसार गतिशील, परिवर्तनात्मक एवं विकाशील है। यह पूरे भारत में विभिन्न जातीय समुदायों में फैली हुई है। यह स्थान और जातीय समुदाय, विशिष्ट स्वास्थ्य संबंधी प्रथाओं, जीवन शैली, भोजन की आदतें, क्षेत्र, विश्वास पर आधारित है। हर जगह पर पारंपरिक पशु चिकित्सा स्वास्थ्य पद्दति के जानकार एवं अनुभवी स्थानीय आरोग्यसाधक पशुओं के इलाज के लिए मिलते हैं, जिनको आमतौर पर पशु वैद्य या कारिंदे कहा जाता है। गैर-संहिताबद्ध पद्दति स्व-स्थायी, बिना किसी एजेंसी या संस्था के मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रसारित होती रहती है।

कुछ क्षेत्रों में यह भी पाया गया है कि घरेलू उपचार से संबंधित ज्ञान 100 से अधिक पौधों की प्रजातियों का गठन करता है और उस इलाके की प्रमुख प्रजातियों को शामिल करता है। अनार का उपयोग एसिडिटी, दस्त, कृमि, रक्ताल्पतता, मॉर्निंग सिकनेस को ठीक करने में किया जाता है। काली मिर्च क्षुधावर्धक है जो बुखार, सर्दी, खांसी को ठीक करती है। मघपीपली भी क्षुधावर्धक है जो खांसी, पेट की गड़बड़ी, बुखार, सर्दी को ठीक करती है। इसी प्रकार गुढ़हल का उपयोग बुखार, मासिक धर्म संबंधी विकार, मधुमेह, बालों का समय से पहले सफ़ेद होना इत्यादि को ठीक करता है।

घरेलू स्तर पर कई प्राथमिक स्वास्थ्य समस्याओं को पारंपरिक औषधीय व्यंजनों का उपयोग करके प्रबंधित किया जाता है। इन व्यंजनों को स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके बनाया जाता है और इनको प्राथमिक चिकित्सा उपचार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। एथनोवेटरीनरी चिकित्सा

प्रणालियाँ पारिस्थितिकी तंत्र और जातीय-समुदाय विशेष के लिए विशिष्ट होती हैं और इसलिए, विशेषताओं, श्रेष्ठता, और इन प्रणालियों की सामर्थ व्यक्ति विशेष, समाज, और क्षेत्रों में काफी अलग-अलग देखने को मिलती हैं।

पशुओं को स्वस्थ बनाए रखने के लिए, मैककॉर्कले, मानवविज्ञानी, और एवलिन मैथियस मुंडी, पशु चिकित्सक, ने उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में उस स्थानीय ज्ञान की ओर ध्यान दिलाने के लिए 15 वर्षों तक पशु रोग उपचार से संबंधित कार्य किया है और आज ज्ञान के इसी स्वरूप को आमतौर पर एथनोवेटनरी मेडिसिन के रूप में जाना जाता है (Andrews et al. 2004)। एथनोवेटरीनरी मेडीसिन में पशुओं के स्वास्थ्य के लिए स्वदेशी पद्दतियों का उपयोग किया जाता है। विभिन्न स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्रियों का उपयोग करके पशुधन की विभिन्न प्रजातियों में मामूली स्वास्थ्य समस्याओं / रोगों के उपचार के संबंध में स्थानीय लोगों के ज्ञान और प्रथाओं के अनुसार उपचार किया जाता है (Das and Tripathi 2009)। विकासशील देशों में कई सामाजिक वैज्ञानिक, पशु चिकित्सक, पशुपालक और क्षेत्र के श्रमिक औषधीय पौधों और पशुधन की देखभाल में उनके चिकित्सीय उपयोग में रुचि रखते हैं।

स्थानीय स्वास्थ्य परंपरा में लगभग 6500 पौधे, और 50,000 हर्बल सूत्रों को प्राकृतिक संसाधन के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। एथनोमेडीसिन में 33 प्रतिशत वृक्ष, 32 प्रतिशत जड़ी-बूटी, 20 प्रतिशत झाड़ीय पौधों, 12 प्रतिशत लताओं और 3 प्रतिशत अन्य संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है।

परंपरागत चिकित्सा पद्दति में औषधीय पौधों की 29 प्रतिशत जड़ों, 4 प्रतिशत कंदों, 16 प्रतिशत संपूर्ण पौधों, 14 प्रतिशत पौधों की छाल, 3 प्रतिशत लकड़ी, 6 प्रतिशत तनों, 7 प्रतिशत बीजों, 10 प्रतिशत फलों, 5 प्रतिशत फूलों एवं 6 प्रतिशत पत्तों का उपयोग किया जाता है।

आज आधुनिक चिकित्सा पद्दति में भी 120 से ज्यादा रसायनों को पौधों से निकालकर विश्वभर में औषधी के रूप में बेचा जा जाता है जिनमें एसीटाइलडीजोक्सिन को डीजीटेलीस लनाटा (Digitalis lanata) व एडोनीसाइड को एडोनीसीन वर्नालीस (Adonis vernalis) से तैयार करके हृदयशक्तिर्द्धक औषधीयों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इनके अतिरिक्त एटरोपीन, बरबेरिन, बेटुलिनिक एसीड, कैम्फर, कोडीन, कुर्कुमीन, डीजिटेलिन, डीजिटोक्सीन, एमेटिन, एफेड्रिन, जीटालिन, मेंथोल, नियोएंड्रोगरैफोलाइड, निकोटिन, पैपेन, पैपावेरिन, फाइजोस्टीग्मिन, कुनीन, रेजरपीन, रयूटीन, सीलिमेरिन, स्ट्रीक्निन, थियोब्रोमिन, विनक्रीस्टीन, योहीम्बीन इत्यादि अनेक बहुत सी औषधीयां पौधों से तैयार की जाती हैं (Taylor 2000)।

परंपरागत औषधीय पौधे जैसे कि जीरा, हल्दी, लहसुन, अदरक, पपीता, अमरूद, नींबू, संतरा, केला, कीवी, और बहुत सारे पौधे, प्रत्येक मनुष्य द्वारा उपयोग किया जाते हैं जो खाने में स्वादिष्ट, नवयौवन प्रदान करने वाले, उर्जावान, स्वास्थ्यवर्द्धक, संक्रामक विरोधी और  जीवन को बढ़ाने वाले हैं। इस प्रकार देखा जाए तो पारंपरिक दवाएं सस्ती, सामाजिक रूप से तर्क  संगत और आसानी से

उपलब्ध होने वाली हैं जिनमें कई सामाजिक वैज्ञानिक, पशु चिकित्सक, पशुपालक और क्षेत्रीय कार्यकर्ता औषधीय पौधों में रुचि रखते हैं और पशुधन की देखभाल में उनके चिकित्सीय उपयोग करते हैं। भारत में प्राकृतिक संसाधन के रूप में एक समृद्ध एथनो-पशु चिकित्सा स्वास्थ्य परंपरा मौजूद है।

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