डा. के.एल. दहिया
पशु चिकित्सक, राजकीय पशु हस्पताल, हमीदपुर (कुरूक्षेत्र) हरियाणा
जब भी हमें दर्द, ज्वर या सूजन (शोथ) होती है तो इनको हरने के लिए औषधी लेने में तनिक भी देरी नहीं करते हैं। इसी प्रकार जब भी पशु को रोग चाहे जो भी, लेकिन इन औषधीयों का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है। पशु के मरणोपरान्त जब गिद्ध इनका भक्षण करते हैं तो उनकी जान को खतरा बढ़ जाता है। आज हालात यह हैं कि गिद्धों की संख्या में इतनी कमी आयी है कि उनको देख पाना भी मुश्किल हो रहा है। इतना ही नहीं अन्य पक्षी जैसे कि चिड़ियां जो घर-आंगन में चहचहाती थीं, लगभग विलुप्तप्रायः हो चुकी हैं। आधुनिक दौर में उपयोग किये जाने वाले रसायनों के अत्याधिक उपयोग के कारण हर जीव को खतरा उत्पन्न हो चुका है जिसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव हमारे पर्यायवरण में विचरण करने वाले गिद्धों पर पड़ा है और अंतः उनकी आबादी लगभग विलुप्ती के कगार पर है।
गिद्ध ऐसा पक्षी होता है जो मृत पशुओं के माँस का भक्षण करके पर्यायवरण को स्वच्छ रखने में मदद करता है और बाकि जो बचता है तो केवल उस पशु की अस्थियां ही बचती हैं जिनको आसानी से सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाता है। आज गिद्धों की संख्या में अत्याधिक कमी के कारण मृत पशुओं के शरीर ऐसे ही पड़े रहते हैं जो पर्यायवरण के लिए खतरे की ओर इशारा करते हैं। अतः यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि गिद्ध प्राकृतिक रूप से पर्यायवरण के सफाई कर्मी हैं जिनके अभाव में सफाई का अभाव भी निहित है।
गिद्धों की संख्या में कमी का सबसे बड़ा कारण पालतु पशुओं के बीमार होने पर उनको दी जाने वाली दर्द, ज्वर या सूजन को हरने वाली औषधयां हैं। इन औषधीयों में सबसे ऊपर डिक्लोफेनाक का नाम आता है। डिक्लोफेनाक एक ऐसी औषधी जिसका उपयोग सूजन को दूर करने के साथ-साथ बुखार, दर्द आदि को ठीक करने के लिए उपयोग किया जाता रहा है। प्रतिबंधित होने के बाद भी इस औषधी का उपयोग आज तक भी किया जा रहा है। 1990 के दसक में इस औषधी का उपयोग एक रोगी पशु में एक ही दिन में प्रस्तावित मात्रा से कई गुणा ज्यादा मात्रा का उपयोग किया गया जिसके अवशेष मृत पशुओं में होने के कारण गिद्धों की संख्या पर बुरा असर पड़ा है। विश्व में अनेकों शोध यह बता चुके हैं कि यह औषधी पर्यायवरण के लिए बहुत ही घातक है फिर भी आज तक इसका उपयोग धड़ल्ले के किया जाता रहा है। डिक्लोफेनाक औषधी पक्षियों खासतौर से गिद्धों के लिए हानिकारक है जिसके पशुओं में उपयोग के कारण लगभग 99 प्रतिशत गिद्धों की संख्या में कमी आयी है (Ghosh-Harihar et al. 2019)।
डिक्लोफेनाक के अलावा अन्य दर्दनिवारक, सूजनहारी एवं ज्वरनाशी औषधयां जैसे कि एसीक्लोफेनिक, मेलोक्सिीकेम, किटोपरोफेन, निमेसुलाइड एवं फ्लुनिक्सिन इत्यादि के दुष्प्रभाव भी गिद्धों में जानलेवा साबित हो चुके हैं। इन सभी औषधीयों के कारण गिद्धों के महत्वपूर्ण अंगों में खराबी आ जाने से उनकी मृत्यु निश्चित हो जाती है (BirdLife International 2017)। अतः समय की आवश्यकता एवं भविष्य के खतरे का आंकलन करते हुए आधुनिक चिकित्सा में प्रयोग की जाने वाली औषधीयों को विवेकपूर्वक इस्तेमाल करें औ जहाँ तक संभव हो सके तो इन औषधीयों का उपयोग कुशल चिकित्सक की देखरेख में ही करने में भलाई है।
अतः आज विश्वभर में जैव विविधता को बचाए रखने के लिए जितना जोर दिया रहा है उतना ही बल इन घातक औषधीयों के ज्ञानपूर्वक उपयोग करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही यदि घर या आस-पड़ोस में उपलब्ध घरेलु औषधीयों का उपयोग किया जाता है तो इस समस्या से निपटा जा सकता है। हमें यह भी विधित होना चाहिए कि आधुनिक औषधी विज्ञान में उपयोग की जाने वाली लगभग 80 प्रतिशत से भी औषधीयां वनस्पतियों से प्राप्त की जाती हैं। अतः यह संभव सी बात है कि एथनोवेटरीनरी में उपयोग किये जाने वाले घरेलु नुस्खे इसमें सफल रहेंगे जो सफल भी हो रहे हैं। आधुनिक औषधी विज्ञान में उपयोगी ग्वारपाठा, हल्दी एवं हल्दी का उपयोग पशुओं में थनैला रोग में उत्पन्न होने वाली सूजन को ठीक करने के साथ-साथ रोगाणरोधी भी सिद्ध हो चुका है। इसी प्रकार, लेवटी में केवल सूजन होने पर सरसों या नारियल का तेल, लहसुन, हल्दी एवं तुलसी के पत्तों का कारगर प्रभाव मिलता है। जीरा, काली मिर्च, धनिया, लहुसन, तुलसी, प्याज, हल्दी एवं अन्य घरेलु सामग्रीयों का उपयोग पशु के बुखार होने पर किया जाता है।
थनैला (सभी प्रकार का)
थनैला रोग होने पर 250 गाम ग्वापाठा के पत्तों के किनारों से कांटे अलग करने के बाद छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर मिक्सी में डालें और साथ ही इसमें 50 ग्राम हल्दी पाउडर एवं 10 ग्राम चूना पाउडर भी डाल कर पेस्ट बना लें। अब इस पेस्ट को दस भागों में बांटकर (लगभग एक मुट्ठीभर) एक भाग को दूसरे बर्तन में डालें और 150 – 200 मि.ली. पानी मिलाकर पतला कर लें। इस प्रकार इसको दिन में 8-10 बार, 5 दिन तक या ठीक होने तक लेवटी एवं थनों के ऊपर लगाएं। पशु को दो नींबू काटकर भी प्रतिदिन खिलाएं। इस पेस्ट को लेवटी को साफ पानी से धोकर लगाएं। दिन में एक बार दो नींबू काट कर भी प्रभावित पशु को खिलाएं। दूध में खून आने पर उपरोक्त विधि के अतिरिक्त, दो मुट्ठी कढ़ीपत्ता को पीसकर गुड़ के साथ मिलाकर दिन में एक-दो बार ठीक होने तक भी खिलाएं। यदि थनैला रोग ज्यादा दिनों से है तो घृतकुमारी, हल्दी एवं चूना के साथ हाडजोड़ (Cissus quadrangularis) के 2 फल भी मिला लें व 21 दिनों तक इस औषधी को लेवटी पर लगाएं।
अयन-थन शोफ (Udder Oedema)
अयन-थन शोफ होने पर 200 मि.ली. सरसों/तिल का तेल गर्म करें। एक मुट्ठी हल्दी पाउडर एवं दो कटी हुई लहसुन की कलियाँ डालकर अच्छी तरह मिला लें। अब जैसे ही गर्म करते समय इसमें से गंध आने लगे तो आँच से नीचे उतार लें (उबालने की आवश्यकता नहीं है)। इसे ठण्डा होने दें पर छान लें। इसमें एक मुट्ठी तुलसी (Ocimum sanctum) के पत्तों को भी हल्दी एवं लहसुन के साथ तेल में डाल सकते हैं। शोफ (Oedema) वाली लेवटी, थन या भाग पर थोड़ा बल के साथ गोलाकार तरीके से दिन में चार बार लगातार तीन दिन तक लगाएं। इस विधि का उपयोग करने से पहले थनैला रोग की अवश्य जाँच कर लें।
बुखार (Fever)
सामग्री : (i) जीरा (Cumin seeds) 10 ग्राम, (ii) काली मिर्च (Black pepper) 10 ग्राम, (iii) धनिया के बीज (Coriander seeds) 10 ग्राम, (iv) लहुसन (Garlic) 2 कलियाँ, (v) तुलसी (Holy basil) के पत्ते 1 मुट्ठी, (vi) मरूआ तुलसी (Sweet basil) 1 मुट्ठी, (vii) दालचीनी (Cinnamon) के सूखे पत्ते 10 ग्राम, (viii) पान के पत्ते (Betel leaves) 5, (ix) प्याज (Onions) 2, (x) हल्दी पाउडर (Turmeric powder) 10 ग्राम, (xi) चिरायता (Chirayita) के पत्तों का पाउडर 20 ग्राम, (xii) नीम के पत्ते (Neem leaves) 1 मुट्ठी, (xiii) गुड़ (Jaggery) 100 ग्राम
तैयार करने की विधि :
- जीरा, काली मिर्च और धनिये के बीजों को 15 मिनट के लिए पानी में भिगोकर रख दें।
- 15 मिनट के बाद पानी में बीजों का निकालकर कूट लें और इसमें अन्य सारी बतायी गई सामग्री को मिलाकर कूट लें जिससे कि सारी सामग्री एक पेस्ट की तरह बन जाए।
उपयोग विधि : तैयार औषधी का आधा-आधा सुबह-शाम बुखार ग्रसित पशु को खिलाएं।