डा. अत्तर सिंह*
*पशु शल्य चिकित्सक, राजकीय पशु हस्पताल, दबखेड़ा (कुरूक्षेत्र) – हरियाणा
- प्रश्न : भेड़ – बकरियों में पांव सड़न रोग क्या है?
उत्तर : यह भेड़-बकरियों में जीवाणुओं द्वारा फैलने वाला संक्रामक एवं छूत का रोग है। इस रोग से भेड़-पालकों को बहुत ज्यादा आर्थिक नुकसान पहुंचाने वाला माना जाता है। इसे फुट रोट या संक्रामक पोडोडर्मेटाइटिस के रूप में भी जाना जाता है। हिमाचल प्रदेश में इस रोग को चिकड़ रोग कहा जाता है।
- प्रश्न : यह रोग कैसे फैलता है?
उत्तर : इस रोग के जीवाणु आमतौर पर कुछ अलाक्षणिक (Carrier) भेड़ों में पाए जाते हैं जिन से वातावरण नम एवं उच्च तापमान होने पर अन्य स्वस्थ भेड़ों में फैल जाता है।
यह रोग ऐसे बाड़ों, मार्गों या वाहनों से भी हो जाता है जिनमें कुछ दिनों पहले ही इस रोग पीढ़ित भेड़ों को ले जाया गया हो।
यह रोग स्वस्थ भेड़ों में एक घण्टा बाड़ों में ठहरने से भी हो जाता है जिनमें चार घण्टे पहले ऐसी भेड़ों का झुण्ड था जिनमें एक प्रतिशत से भी कम रोगी भेड़ों थीं।
एक ही झुण्ड में मौजूद भेड़ों में यह रोग तेजी तब फैलता है जब बाड़े में चारा-पानी का स्त्रोत एक ही होता है।
- प्रश्न : यह किस कारण होता है?
उत्तर : यह रोग फ्यूजोबेक्टीरियम नेक्रोफोरम (Fusobacterium necrophorum) एवं डिचेलोबेक्टर नोडोसस (Dichelobacter nodosus) नामक जीवाणुओं के संक्रमण के कारण होता है।
- प्रश्न : यह रोग किन क्षेत्रों में देखने को मिलता है?
उत्तर : यह रोग शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर विश्व उन सभी राष्ट्रों में पाया जाता है जहाँ पर भेड़-बकरियाँ पाली जाती हैं। लेकिन शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में भी नमी बढ़ने पर यह रोग हो जाता है। अर्थात बरसात के दिनों में बहुतायत में देखने को मिलता है।
- प्रश्न : भेड़-बकरियों के अलावा, यह रोग और किन-किन पशुओं में होता है?
उत्तर : मुख्य रूप से यह रोग भेड़ों में पाया जाता है लेकिन बकरियाँ भी इस रोग की चपेट में आ जाती हैं। यह रोग गौवंश एवं भैंसों में भी पाया जाता है। नमी एवं उच्च वातावरणीय तापमान होने पर इस रोग की तीव्रता बढ़ जाती है और 1-2 सप्ताह में ही पूरे झुण्ड की भेड़ों को अपनी चपेट में ले लेता है।
- प्रश्न : यह रोग किस वर्ग की भेड़ों को प्रभावित करता है?
उत्तर : पांव सड़न रोग सभी उम्र की भेड़ों में होता है (Mahajan and Kumar 2011)। मेमनों में इस रोग का प्रभाव कम होता है लेकिन जैसे-जैसे भेड़ों की उम्र बढ़ती है तो उनमें रोग की तीव्रता भी बढ़ने लगती है
- प्रश्न : किस तरह की चारागाहें में भेड़ों को चराने इस रोग के होने का खतरा होता हैं?
उत्तर : यह रोग आमतौर पर रसीले, लंबे घास एवं नमी वाली चारागाहों में चरने वाली भेड़-बकरियों में ज्यादा देखने को मिलता है। लंबा घास पशुओं के खुरों में फंसने से घाव कर देता है जिससे पांव सड़न रोग की संभावना भी बढ़ जाती है। जिन चारागाहों में स्ट्रोगोंगाइल गोल कृमियों के लार्वा होते हैं तो खुरों के बीच चमड़ी में छेद कर देते हैं जिससे पांव सड़ रोग की संभावना बढ़ने का खतरा है।
- प्रश्न : इस रोग का आर्थिक महत्तव क्या है?
उत्तर : इस रोग से ग्रसित भेड़-बकरियों में अत्याधिक शारीरिक भार में कमी होने के साथ-साथ मृत्यु दर में बढ़ोतरी, ऊन उत्पादन में कमी, फार्म की सामान्य दिनचर्या में कमी, मेहनत एवं इलाज के खर्चे में बढ़ोतरी होने से भेड़ पालकों को आर्थिक रूप से कमजोर कर देता है।
- प्रश्न : इस रोग पीढ़ित भेड़ों में क्या लक्षण होते हैं?
उत्तर : इस रोग पीढ़ित पशु लंगड़े हो जाते हैं। उनको उठने-बैठने में परेशानी, खाने-पीने में भारी कमी होने के साथ-साथ बहुत ज्यादा कमजोरी देखने को मिलती है। गंभीर रूप से पीढ़ित पशुओं के खुरों के बीच की त्वचा उतर जाती है और उनमें कीड़े पड़ने से स्थिती और भी गंभीर हो जाती है।
- प्रश्न : इस रोग से पांवों में घाव होने की दशा में क्या ईलाज है?
उत्तर : खुरों के बीच में बने घावों को नीले थोथे (कापरसल्फेट) के घोल से धोएं तथा जीवाणुनाशक मलहम तथा चिकित्सक की सलाह अनुसार चार-पांच दिनों तक ईलाज करवाएं। रोग होने पर खुरों में हुए घावों के उपचार के लिए 10 प्रतिशत जिंक आक्साइड का मलहम का उपयोग किया जाता है।
- प्रश्न : इस रोग की रोकथाम क्या है कि जिससे यह रोग उत्पन्न न हो?
उत्तर : पशुपालक अपने बाड़े के मेन गेट पर फुटबाथ बनाकर उसमें 5% नीला थोथा एवं 10% जिंक आक्साइड का पानी का घोल बना लें और उसमें भेड़ों को गुजारकर ही बाड़े से बाहर चरने के लिए ले जाएं और चराने के बाद भी भेड़ों को इसी फुटबाथ में गुजार कर ही बाड़़े के अन्दर करने इस रोग से पशुओं को बचाया जा सकता है।
- प्रश्न : क्या इस रोग से बचाने के लिए बाजार में टीका मिल जाता है।
उत्तर : नहीं, इस रोग से बचाने के लिए बाजार में कोई टीका उपलब्द्ध नहीं है।
- प्रश्न : भेड़ों में रोग होने की स्थिती में क्या सावधानियां बरतनी चाहिए।
उत्तर : पीढ़ित भेड़ों के उपचार के साथ-साथ इन भेड़ों को स्वस्थ भेड़ों से अलग रखना चाहिए। जिस रास्ते से इस बीमारी वाले अन्य पशु गुज़रे हों तो उस रास्ते से एक सप्ताह तक अपने पशुओं को न ले जाएं।
- प्रश्न : क्या इस रोग का कोई देशी इलाज भी है?
उत्तर : सामग्री : 10 लहसून की कलियाँ, 20 ग्राम हल्दी की गांठ, 1 मुट्ठी-भर कुप्पी के पत्ते, 1 मुट्ठी-भर नीम के पत्ते, 1 मुट्ठी-भर मेंहदी के पत्ते, 1 मुट्ठी-भर तुलसी के पत्ते एवं 250 मिलीलीटर नारियल का तेल।
तैयार करने एवं सेवन की विधि : लहसून की कलियों, हल्दी की गांठ, कुप्पी, नीम, मेंहदी एवं तुलसी के पत्तों को पीस कर नारियल के तेल में मिलाकर उबालें। इस सामग्री के उबलने के बाद ठण्डा करके रख लें। पैरों, खुरों या शरीर के किसी भी भाग में घावों को शुद्ध पानी से धो कर साफ कर लें। पानी से धोने के बाद कपड़े की सहायता से घावों को सूखा लें और उसके बाद उपरोक्त तेल को घावों पर ठीक होने तक लगाएं। यदि सूजन है तो नारियल के तेल की बजाय तिल (Sesamum indicum) के तेल का उपयोग करें। यदि घाव में कीड़े हैं तो पहले दिन, नारियल तेल में कपूर मिलाकर अथवा सीताफल की पत्तियों का पेस्ट बनाकर लगाएं।