डा. अत्तर सिंह1, डा. के.एल. दहिया1, डा. जसवीर सिंह पंवार2
1. पशु शल्य चिकित्सक, 2. उपमण्डल अधिकारी (पशुपालन एवं डेयरी विभाग) थानेसर – हरियाणा
भेड़-बकरियों में पांव सड़न रोग, खुरों का एक संक्रामक रोग है, जिसे विशेष रूप से भेड़ और बकरियों के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक बीमारी माना जाता है। यह एक छूत का रोग जो जीवाणुओं द्वारा होता है जिससे भेड़-बकरियों को तेज़ बुखार होने के साथ-साथ लंगड़े हो जाते हैं। इसे फुट रोट या संक्रामक पोडोडर्मेटाइटिस के रूप में भी जाना जाता है। हिमाचल प्रदेश में इस रोग को चिकड़ रोग कहा जाता है। इस रोग में भेड़-बकरियों के खुरों की बीच की चमड़ी पक जाती है तथा वह लंगड़ी हो जाती हैं।
कारण : यह रोग डिचेलोबेक्टर नोडोसस (Dichelobacter nodosus) एवं फ्यूजोबेक्टीरियम नेक्रोफोरम (Fusobacterium necrophorum) नामक जीवाणुओं के संक्रमण के कारण होता है (Mahajan and Kumar 2011)।
भूगोलिक स्थिती : यह रोग शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर विश्व उन सभी राष्ट्रों में पाया जाता है जहाँ पर भेड़-बकरियाँ पाली जाती हैं। लेकिन शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में भी नमी बढ़ने पर यह रोग हो जाता है।
प्रभावित होने वाले पशु : मुख्य रूप से यह रोग भेड़ों में पाया जाता है लेकिन बकरियाँ भी इस रोग की चपेट में आ जाती हैं। यह रोग गौवंश एवं भैंसों में भी पाया जाता है। नमी एवं उच्च वातावरणीय तापमान होने पर इस रोग की तीव्रता बढ़ जाती है और 1-2 सप्ताह में ही पूरे झुण्ड की भेड़ों को अपनी चपेट में ले लेता है।
रोग का संचरण : इस रोग के जीवाणु आमतौर पर कुछ अलाक्षणिक (Carrier) भेड़ों में पाए जाते हैं जिन से वातावरण नम एवं उच्च तापमान होने पर अन्य स्वस्थ भेड़ों में फैल जाता है। यह रोग ऐसे बाड़ों, मार्गों या वाहनों से भी हो जाता है जिनमें कुछ दिनों पहले ही इस रोग पीढ़ित भेड़ों को ले जाया गया हो। यह रोग स्वस्थ भेड़ों में एक घण्टा बाड़ों में ठहरने से भी हो जाता है जिनमें चार घण्टे पहले ऐसी भेड़ों का झुण्ड था जिनमें एक प्रतिशत से भी कम रोगी भेड़ों थीं। एक ही झुण्ड में मौजूद भेड़ों में यह रोग तेजी तब फैलता है जब बाड़े में चारा-पानी का स्त्रोत एक ही होता है।
पांव सड़न रोग सभी उम्र की भेड़ों में होता है (Mahajan and Kumar 2011)। मेमनों में इस रोग का प्रभाव कम होता है लेकिन जैसे-जैसे भेड़ों की उम्र बढ़ती है तो उनमें रोग की तीव्रता भी बढ़ने लगती है। यह रोग मेरिनो टाईप भेड़ों को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। प्राकृतिक रूप में कुछ भेड़ें कभी भी संक्रमित नहीं होती हैं, कुछ संक्रमित हो जाती हैं लेकिन ठीक हो जाती हैं लेकिन अधिकांश संक्रमित हो जाती हैं और जीर्ण रोगी के रूप में बची रहती हैं।
चारागाह की नमी तथा पर्यावरणीय तापमान पांव सड़न के संचरण के लिए प्रमुख निर्धारक हैं। नमी और उच्च वातावरणीय तापमान की स्थिति चारागाह में जीवाणुओं की मौजूदगी को बढ़ावा देती हैं जिससे पांवों में चोट लगने की संवेदनशीलता बढ़ जाती है और यह रोग अलाक्षणिक (Carrier) भेड़ों से चोटग्रस्त भेड़ों में फैलने लगता है। संक्रमण का मुख्य स्रोत अन्य संक्रमित भेड़ों के घाव से तरल पदार्थ के बहने से होता है। इस रोग से प्रभावित भेड़ों के झुण्ड में 30 – 40 प्रतिशत भेड़ों में लक्षण देखने को मिलते हैं (Mahajan and Kumar 2011)।
यदि कम जगह वाले बाड़े में ज्यादा भेड़-बकरियों को रखा जाता है रोग के लिए पर्यावरणीय स्थिति अनुकूल होने पर रोग के प्रसार को बढ़ावा मिलता है। यह रोग चोट या नुकीली चीज खुर में चुब जाने से भी होता है। जो पशु अकसर गोबर और पानी में खड़े रहते हैं उनमें इस रोग के बढ़ जाने की संभावना अधिक रहती है। बड़े हुए खुरों को काटने से भी इस रोग के होने की संभावना को बढ़ावा मिलता है। यदि रोग ग्रसित भेड़ को पहचान करके अलग नहीं किया जाता है तो इन्य पशुओं में इस रोग के बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है।
यह रोग आमतौर पर रसीले, लंबे घास एवं नमी वाली चारागाहों में चरने वाली भेड़-बकरियों में ज्यादा देखने को मिलता है। लंबा घास पशुओं के खुरों में फंसने से घाव कर देता है जिससे पांव सड़न रोग की संभावना भी बढ़ जाती है। जिन चारागाहों में स्ट्रोगोंगाइल गोल कृमियों के लार्वा होते हैं तो खुरों के बीच चमड़ी में छेद कर देते हैं जिससे पांव सड़ रोग की संभावना बढ़ने का खतरा है।
आर्थिक महत्व : इस रोग से ग्रसित भेड़-बकरियों में अत्याधकि शारीरिक नुकसान होने के साथ-साथ मृत्यु दर में बढ़ोतरी, ऊन उत्पादन में कमी, फार्म की सामान्य दिनचर्या में कमी, मेहनत एवं इलाज के खर्चे में बढ़ोतरी होने से यह भेड़-बकरियों की एक मंहगी बीमारी है।
लक्षण : एक से ज्यादा संक्रामक कारकों के कारण पांव सड़न एक जटिल रोग है। इस रोग से पीढ़ित पशुओं में शरीर कमजोर हो जाता है। उनमें लंगड़ापन, प्रजनन क्षमता में कमी, ऊन एवं मीट उत्पादन में कमी देखने को मिलती है (La Fontaine et al. 1993)। लंगड़ापन आमतौर बीमारी का पहला लक्षण होता है जो एक या एक से अधिक पांवों में अस्पष्ट से लेकर गंभीर रूप से देखने को मिलता है, जो बाद में अंतःशिरा ऊतकों (Interdigital tissues) में लालिमायुक्त और सूजा हुआ दिखायी देता है (Stewart 1989)। इस रोग ग्रसित भेड़ों में लंगड़ापन होने के कारण उनको खड़ा होने (चित्र 1) एवं चलने में परेशानी होती है (Ansari et al. 2014)। गंभीर रूप से पीढ़ित पशुओं के खुरों के बीच की त्वचा उतर जाती है और उनमें कीड़े पड़ने से स्थिती और भी गंभीर हो जाती है (चित्र 2) (Mahajan and Kumar 2011)।
इस रोग से पीढ़ित पशुओं का लगभग 11 प्रतिशत शारीरिक भार एवं 8 प्रतिशत ऊन का उत्पादन कम हो जाता है। पांव सड़न रोग से प्रभावित पशुओं के पैरों से बहता द्रव मक्खियों को आकर्षित करता है और घावों में मक्खियों के लार्वा पैदा होने से स्थिती और गंभीर हो जाती है।
उपचार : पांव सड़न रोग से प्रभावित भेड़-बकरियों के खुरों को नीले थोथे (कापरसल्फेट) के घोल से धोएं तथा जीवाणुनाशक मलहम तथा चिकित्सक की सलाह अनुसार चार-पांच दिनों तक ईलाज करवाएं। रोग होने पर खुरों में हुए घावों के उपचार के लिए जिंक ऑक्साइड का मलहम, एंटिबायोटिक्स का उपयोग किया जाता है।
उपचार और नियंत्रण के लिए फुटबाथ : बाड़े के मुहाने पर पानी में रोगाणुनाशक दवा के घोल में मिलाकर उसमें भेड़-बकरियों को गुजारने वाले स्थान को फुटबाथ कहते हैं। जिसका उपयोग बहुत पशु होने पर किया जाता है। सभी भेड़-बकरियों को इस दवा मिश्रित घोल से गुजारा जाता है। कई दिनों तक इस घोल से पशुओं को गुजारने से बहुत से पशु ठीक हो जाते हैं और शेष पशुओं (ठीक न होने वाले) को झुण्ड से अलग कर दिया जाता है। फुटबाथ बनाने के लिए 5 प्रतिशत नीला थोथा एवं 10 प्रतिशत जिंक आक्साइड को मिलाकर तैयार किया जाता है। इसके अलावा केवल जिंक आक्साइड का उपयोग 10 से 20 प्रतिशत की मात्रा में फुटबाथ बनाने के लिए अच्छा रहता है क्योंकि नीला थोथा पशुओं की त्वचा में जलन पैदा करता है। फुटबाथ की गहराई इतनी होनी चाहिए कि उसमें पशुओं के खुरों से ऊपर तक पैर डूब जाने चाहिए। फुटबाथ में पैर धोने के बाद पशुओं को धूलरहित, सूखी जगह पर कुछ घण्टे तक रख जाना चाहिए। इस घोल का उपयोग रोग न होने की दशा में सप्ताह में एक बार लगातार चार सप्ताह करने से रोग होने की संभावना को कम किया जा सकता है।
रोग से बचाव : इस रोग से ग्रस्त भेड़-बकरियों को अन्य स्वस्थ भेड़-बकरियों से अलग रखें। जिस रास्ते से इस बीमारी वाले अन्य पशु गुज़रे हों तो उस रास्ते से एक सप्ताह तक अपने पशुओं को न ले जाएं। बीमार भेड़-बकरियों के खुरों की प्रतिदिन साफ-सफाई करनी चाहिए।
संदर्भ
- Ansari M.M., Dar K.H., Tantray H.A., Bhat M.M. and Dar S.H., 2014, “Efficacy of different therapeutic regimens for acute foot rot in adult sheep,” Journal of Advanced Veterinary and Animal Research; 1(3): 114-118. [Web Reference]
- La Fontaine S.L., Egerton J.R., Rood J.I., 1993, “Detection of Dichelobacter nodosus using species-specific oligonucleotides as PCR primers,” Veterinary Microbiology; 35: 101–117.
- Mahajan N.K. and Kumar T., 2011, “EMERGING STATUS OF FOOTROT IN SHEEP IN HARYANA,” Veterinary Practitioner; 12(2): 206-207. [Web Reference]
- Stewart D., 1989, “Footrot in sheep. In: Footrot and foot abscesses of ruminants.” Egerton J.R., Yong W.K., Riffkin G.G. (Edn.). CRC Press, Boca Raton, Florida; p. 5–45.
Dissemination of Knowledge. Leaflet. Online published on October 14, 2019. www.dkart.in p. 4.