डा. के.एल. दहिया*
*पशु चिकित्सक, राजकीय पशु हस्पताल, हमीदपुर (कुरूक्षेत्र)
पशुपालन एवं डेयरी विभाग, हरियाणा
रोगाणुरोधी प्रतिरोध (Antimicrobial resistance) एक बहुत ही महत्वपूर्ण जनस्वास्थ्य समस्या है होने के साथ-साथ यह महत्वपूर्ण पर्यावरणीय स्वास्थ्य समस्या भी है जिसे आमतौर पर एंटीबायोटिक प्रतिरोध कहा जाता है। और वास्तव में, अब हम जानते हैं कि हमारी कई मानवीय गतिविधियों और इंजीनियर पद्दतियां, रोगाणुरोधी प्रतिरोध के स्तर को बढ़ाने में योगदान कर रही हैं। रोगाणुरोधी प्रतिरोध सूक्ष्मजीवों के जीवन की शुरुआत के बाद से ही मौजूद है जिसका स्तर मानवीय गतिविधियों के साथ समृद्ध हुआ है। रोगाणुओं में अपनी विशेषताओं को साझा करने के लिए जीन को साझा करने की क्षमता है और जैसा कि जो रोगाणु प्रतिरोधी होते हैं वे समृद्ध होते हैं, उन्होंने अपने प्रतिरोध जीन को भी बहुत साझा किया है। और अंततः इस कारण हमारे पर्यावरण और हस्पतालों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध का स्तर बढ़ रहा है (Singh 2013)।
विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 27 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने में ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं जिन में से 4,21,000 बच्चे रोगाणुओं के संक्रमण के कारण ही दम तोड़ देते हैं (Liu et al. 2015)। भारत में लगभग 10 लाख बच्चे जन्म के पहले माह में ही प्रतिवर्ष अकाल ही मर जाते हैं जिन में से 1,90,000 बच्चे केवल रोगाणुओं के संक्रमण के कारण ही दम तोड़ देते हैं और इनमें से 58319 बच्चे रोगाणुरोधी दवाओं के प्रतिरोध के कारण प्रतिवर्ष मर जाते हैं (CDDEP)। इसका सीधा अर्थ है कि भारत में लगभग 30 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु केवल रोगाणुरोधी दवाओं के बेअसर होने से ही होती हैं। विश्व में मातृत्व प्राप्त महिलाओं में प्रतिवर्ष होने वाली कुल मौतों में से लगभग 11 प्रतिशत मौतें केवल रोगाणु संक्रमण के कारण ही होती हैं (Bonet et al. 2018)। यदि कहा जाए कि बढ़ता संक्रमण एवं रोगाणुरोधी प्रतिरोध भविष्य के लिए एक मण्डराने वाला घातक खतरा है, इसमें कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए।
रोगाणुरोधी प्रतिरोध तब होता है, जब रोगाणु बदल जाते हैं और वे रोगाणुरोधी दवा के प्रतिरोधी बन जाते हैं। जो दवाएं प्रभावी रूप से पहले काम करती थीं लेकिन वे अब कम काम करती हैं या बेकार हो चुकी हैं। यह मानव स्वास्थ्य क्षेत्र में और पशु चिकित्सा स्वास्थ्य के लिए एक समस्या है। अत: इसमें विकास, लोगों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा के व्यापक प्रभाव निहित हैं। जब रोगाणुरोधी दवाओं का दुरुपयोग या अति प्रयोग होता है तो उनका प्रभाव कम या बेअसर होने लगता है।
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दूध, सबसे लोकप्रिय प्राकृतिक स्वास्थ्यर्द्धक आहार है, जिसका सेवन विश्व स्तर पर हर आयु वर्ग के मनुष्यों द्वारा किया जाता है। दूध के अलावा, पशुओं को माँस के उद्देश्य से भी पाला जाता है। जब भी पशु बीमार होते हैं तो उनको आमतौर पर रोगाणुनाशक औषधीयां दी जाती हैं। पशु जनित खाद्य आहार की मांग भी तेजी से बढ़ रही है और इस बढ़ती माँग के साथ ही पशु चिकित्सा में उपयोग की जाने वाली औषधीयों की माँग भी लगातार बढ़ रही है। 2012 में, रोगाणुरोधी औषधीयों की औसत खपत मनुष्यों एवं पशुओं में क्रमशः 116.4 और 144.0 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. अनुमानित थी जिसमें 2030 तक 67 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने की संभवना है (Lhermie et al. 2017)। भारत सहित अन्य विकासशील देशों, जहां संक्रामक रोग अधिक हैं, में रोगाणुरोधी औषधीयों का प्रतिरोध का खतरा अधिक हो सकता है, जो रुग्णता और मृत्यु दर को सीमित करने के लिए उच्च रोगाणुरोधी औषधीयों के आकर्षण के केन्द्र हो सकते हैं (Ganguly et al. 2011)। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से खाद्य पशु उत्पादों (दूध एवं चिकन माँस) में रोगाणुरोधी औषधीयों के अवशेषों की मौजूदगी व्यापक रोगाणुरोधी औषधीयों के उपयोग की ओर संकेत देती है (Kakkar and Rogawski 2013, Brower et al. 2017)। कई अध्ययनों ने रोगाणुरोधी उपयोग और रोगाणुरोधी-प्रतिरोधी जीवाणु उपभेदों की घटना के बीच न केवल पशुओं में बल्कि मनुष्यों में भी घनिष्ठ संपर्क होने के संबंध दिए हैं। मनुष्यों और पशुओं के बीच किसी भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क से पशुओं (दूध, अण्डा, माँस) से मनुष्यों में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी जीवाणु उपभेदों और जीनों के प्राणीरूजा संचरण हो सकते हैं जिससे बहुत सी जीवाणुरोधी औषधीयों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध होने से न केवल पशु, बल्कि मनुष्य भी खतरे में हैं। इसका सबसे ज्यादा खतरा पशुपालकों, खाद्य संचालकों और पशु चिकित्सकों को है। दूषित खाद्य उत्पादों जैसे कि दूध, दूध उत्पाद एवं माँस के उपभोग के माध्यम से जीवाणु उपभेदों के संपर्क में आने से उपभोक्ताओं को भी रोगाणुरोधी प्रतिरोध का खतरा रहता है।
पानी रोगाणुरोधी अवशेष और प्रतिरोध निर्धारकों के प्रसारण के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है। क्योंकि दूषित पानी का सीधे तौर पर मनुष्यों और पशुओं द्वारा उपभोग किया जाता है और फसलों की सिंचाई की जाती है। सिंचाई का पानी जिसे फसल कटाई पूर्व चरण में खेत में दिया जाता है, को आमतौर पर जीवाणु संदूषण का मुख्य स्रोत माना जाता है। कई शोधों में सब्जियों एवं फलों में प्रतिरोधी जीवाणु पाए गये (Thanner et al. 2016) जिसका अर्थ है कि फसलों में दिये गये पानी एवं खाद से भी मनुष्यों में प्रतिरोधी जीवाणुओं के पैदा होने का खतरा है। पशु एवं मानवीय मल के कारण रोगाणुरोधी दवाओं के जल में मिल जाने के कारण जलीय जीव जैसे कि मछलियाँ भी रोगाणुप्रतिरोध से प्रभावित होती हैं।
मिट्टी में पाए जाने वाले जीवाणु रोगाणुरोधी दवाओं के प्रति ज्यादा प्रभावशाली होते हैं। पर्यावरण और मिट्टी नैदानिक रूप से प्रासंगिक एंटीमाइक्रोबियल-प्रतिरोधी बैक्टीरिया के महत्वपूर्ण अतीत, वर्तमान और संभावित भविष्य के मुख्य स्त्रोत हैं। अत: रोगाणुरोधी प्रतिरोध के वैश्विक प्रसार में योगदान करने वाले जोखिम कारकों के मूल्यांकन में विचार किया जाना चाहिए।
दूध, दूध से बने उत्पादों एवं अण्डा-माँस के उपयोग से पशुधन और मनुष्यों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध के सबसे ज्यादा फैलने की संभावना होती है। लेकिन यह भी देखने में आया है कि खाद्य व्यापार और मानव यात्रा की बढ़ती वैश्विक प्रकृति के कारण रोगाणुरोधी प्रतिरोध का व्यापक प्रसार होता है। अत: प्रतिरोधी जीवाणु अब बहुत तेज़ी से दुनिया के उन हिस्सों में भी पहुँच रहे हैं जहाँ वे पहले मौजूद नहीं थे।
रोगाणुरोधी प्रतिरोध को निम्नलिखित कारक बढ़ावा देते हैं :
- एंटीबायोटिक दवाओं का अति प्रयोग और दुरुपयोग एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीवाणुओं के विकास को बढ़ावा देता है। जब भी किसी व्यक्ति या पशु को एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं, संवेदनशील जीवाणु तो मारे जाते हैं, लेकिन प्रतिरोधी जीवाणु गुणात्मक रूप से बढ़ते रहते हैं। इस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं के बार-बार उपयोग से औषधी प्रतिरोधी जीवाणुओं की संख्या बढ़ सकती है।
एंटीबायोटिक दवाएं विषाणुओं को नहीं मारती हैं फिर भी एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जाता है। इन बीमारियों के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का व्यापक उपयोग इस बात का उदाहरण है कि एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग एंटीबायोटिक प्रतिरोध के प्रसार को बढ़ावा दे सकता है।
- जीवाणु कई तरीकों से एंटीबायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधी बन सकते हैं। कुछ जीवाणु एंटीबायोटिक को “प्रभावहीन” करते हैं तो कुछ जीवाणु हानि पहुचने से पहले ही इन्हें बाहर उगल देते हैं। कुछ जीवाणु अपनी बाहरी संरचना को बदल सकते हैं, इसलिए एंटीबायोटिक दवाओं के पास जीवाणुओं को संलग्न करने का कोई तरीका नहीं बचता है और एंटिबायोटिक जीवाणुओ को मारने सक्षम नहीं रहती हैं। एंटिबायोटिक के संपर्क में आने के बाद जीवाणु मर जाते हैं लेकिन कभी-कभी जीवाणुरोधी तरीका अपना लेने के कारण एक अकेला जीवाणु जीवित बच जाता है जो गुणात्मक रूप से बढ़कर एंटिबायोटिक प्रतिरोधी जीवाणुओं को जन्म देता है। यही जीवाणु भविष्य के लिए खतरा बन जाते हैं। जीवाणु भी अपने आनुवंशिक पदार्थों के उत्परिवर्तन के माध्यम से एंटिबायोटिक के प्रतिरोधी बन सकते हैं।
- निर्माण या पुरानी रोगाणुरोधी दवा में गुणवत्ता नियंत्रण का अभाव एवं अपर्याप्त निगरानी या दोषपूर्ण संवेदनशीलता की परख होने के कारण अनुचित दवा का उपयोग होना संभव होता है जिस कारण एंटिबायोटिक प्रतिरोध बढ़ता है।
- गरीबी या युद्ध, खाद्य पदार्थों में एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग भी रोगाणुरोधी प्रतिरोध को बढ़ावा देता है।
रोगाणुरोधी प्रतिरोध से सबंधित मुख्य बातें : हालांकि यह निर्विवाद है कि जीवन को संरक्षित करने के लिए रोगाणुरोधी दवाओं की आवश्यकता होती है, यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि इनमें से कुछ दवाएं विशेष रूप से मनुष्यों में बीमारी और संक्रमण से लड़ने तक सीमित हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार रोगाणुरोधी औषधीयों के उपयोग के बारे में निम्नलिखित मुख्य बिन्दु हैं (FAO 2016A) :
- पशु उत्पादन-स्वास्थ्य एवं मत्स्य पालन में रोगाणुरोधी दवाईयों का सुरक्षित उपयोग – पशु कल्याण, कुशल उत्पादन, सुरक्षित व्यापार और खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है।
- पशुधन में रोगाणुरोधकों का दुरुपयोग एवं अतिप्रयोग एक समस्या है जो रोगाणुरोधी प्रतिरोध के प्रसार में योगदान देता है।
- अगले 20 वर्षों में पशुधन और मत्स्य पालन में रोगाणुरोधी दवाओं के उपयोग में कम-से-कम दोगुना होने की संभावना है।
- इसके अलावा, दूषित आहार श्रृंखला में रोगाणुरोधी दवाओं की मौजूदगी जोखिमपूर्ण मार्ग को दर्शाती है।
- मानव स्वास्थ्य संबंधी महत्तव के अलावा, रोगाणुरोधी खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका को नजरअंदाज करते हैं।
- कृषि में रोगाणुरोधी दवाओं के उपयोग से पर्यावरण को दूषित करना भी चिंता का एक विषय है, लेकिन इसमें ज्ञान अंतर है और मनुष्यों या अन्य पशुओं के लिए खतरा स्पष्ट नहीं है।
- फसलों पर कीटनाशकों के साथ-साथ रोगाणुरोधी दवाओं का उपयोग व्यावसायिक जोखिम, खाद्य उपभोक्ताओं के लिए खतरा और पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ाता है।
- कृषि और खाद्य उत्पादों में वैश्विक व्यापार रोगाणुरोधी दवाओं के प्रसार में सुविधा प्रदान करता है।
रोगाणुरोधी प्रतिरोध से सबंधित समस्याएं : संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार रोगाणुरोधी प्रतिरोध से सबंधित खाद्य एवं कृषि समस्याएं इस प्रकार हैं (FAO 2016A) :
- रोगाणुरोधी दवाओं पर अति-निर्भरता में योगदान को रोकने के लिए डेयरी फार्मों पर अप्रभावी या जैव-सुरक्षा के उपायों में कमी।
- स्थानिक या उभरते रोगों, अच्छी स्वास्थ्य पद्दतियों और रोगाणुरोधी पशु चिकित्सा उपचार के विकल्पों के बारे में जागरूकता का अभाव।
- दुष्प्रयोग एवं दुरुपयोग, नकली दवाएं रोगाणुरोधी प्रतिरोध को जन्म देती हैं और उनके प्रसार में योगदान करती हैं।
- खाद्य उत्पादन प्रणालियों जैसे कि दवा उद्यमों एवं सबंधित उद्योगों में रोगाणुरोधी जाँच की निगरानी के लिए अनुपालना में कमी।
- कमजोर खाद्य नियंत्रण प्रणाली में रोगाणुरोधी प्रतिरोध और अन्य दूषित पदार्थों की जाँच करने के लिए अच्छे उपकरणों की कमी।
- मूलभूत ढांचे एवं स्वच्छता प्रणाली में कमियों के कारण पशुधन में बीमारियों का बढ़ता खतरा।
रोगाणुरोधी प्रतिरोध से सबंधित समस्याओं का समाधान : संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार रोगाणुरोधी प्रतिरोध से सबंधित समस्याओं के समाधान के लिए निम्नलिखित मुख्य बिन्दु हैं (FAO 2016A) :
- टिकाऊ पशुपालन पद्दतियां, अच्छी स्वच्छता और जैविक सुरक्षा के उपाय और पशुओं को तनाव से मुक्त करने के लिए पशुपालन में रोगाणुरोधी दवाओं के उपयोग को कम करने की आवश्यकता पर बल देना।
- पशु स्वास्थ्य के बारे में किसानों, चिकित्सा और पशु चिकित्सकों, उपभोक्ताओं और यहां तक कि बच्चों के माध्यम से जागरूकता की आवश्यकता पर बल देना।
- रोगाणुनाशक दवाओं सहित जीवन रक्षक दवाओं के सही उपयोग के लिए पशु चिकित्सा पद्दतियों को मजबूत करने पर बल देना चाहिए।
- सस्ती एवं आसानी से उपलब्ध होने वाली नैदानिक सहायता सेवाएं जो दवाओं के सही चयन और जिम्मेदार उपयोग की सुविधा प्रदान करती हैं।
- सरकार द्वारा अच्छा नियामक (Regulatory) ढांचा और मौजूदा नियमों को बेहतर ढंग से लागू करना।
- अच्छी खाद्य सुरक्षा प्रबंधन पद्दति।
- अस्पतालों, क्लीनिकों, फार्मास्युटिकल उत्पादकों और पशुपालन-सामान उत्पादकों के लिए अच्छी पर्यावरण पद्दति का होना।
रोगाणुरोधी दवाएं पशुओं एवं पौधों के रोगों के उपचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उनका उपयोग खाद्य सुरक्षा, हमारी भलाई और पशु कल्याण के लिए आवश्यक है। हालांकि, इन दवाओं का दुरुपयोग, रोगाणु-प्रतिरोध सूक्ष्म जीवों के उद्भव एवं प्रसार से जुड़ा हुआ है, जिससे हर किसी को बहुत खतरा रहता है। इसलिए, खाद्य और पशुपालन क्षेत्र में कार्य करने के लिए चार प्रमुख क्षेत्र इस प्रकार हैं (FAO 2016B) :
- पशुपालकों और उत्पादकों, पशु चिकित्सकों, अधिकारियों, नीति निर्माताओं और खाद्य उपभोक्ताओं के बीच रोगाणुरोधी प्रतिरोध मुद्दों के बारे में जागरूकता में सुधार करना।
- खाद्य और पशुपालन में रोगाणुरोधी दवाओं के उपयोग की जाँच और निगरानी के लिए राष्ट्रीय क्षमताओं का निर्माण करना।
- खाद्य और पशुपालन में रोगाणुरोधी उपयोग और रोगाणुरोधी प्रतिरोध से संबंधित अधिकार को मजबूत करना।
- खाद्य और पशुपालन में अच्छी पद्दतियों को बढ़ावा देना और रोगाणुरोधकों का विवेकपूर्ण उपयोग।
रोगप्रतिरोध में पशुपालन एवं डेयरी क्षेत्र की भूमिका : पशुपालन, मत्स्य पालन और फसलों में एंटीबायोटिक दवाओं का अति प्रयोग और दुरुपयोग, एंटीबायोटिक प्रतिरोध का प्रमुख कारक है जो पर्यावरण, आहार श्रृंखला और मनुष्यों में भी बढ़ रहा है। यह संक्रामक रोगों के इलाज और चिकित्सा में प्रगति को कम करने की हमारी क्षमता से कमजोर कर रहा है। इसलिए, एंटीबायोटिक औषधीयों का उपयोग सावधानी पूर्वक करना चाहिए ताकि ये यथासंभव लंबे समय तक प्रभावी रहें। इसके लिए पशुपालन और डेयरी क्षेत्र निम्नलिखित उपाय कर सकते हैं (WHO 2016) :
- यह सुनिश्चित करें कि पशुओं (जिसमें खाद्य-उत्पादक और सहचरी पशु कुत्ते-बिल्ली शामिल हैं) को दी जाने वाली रोगाणुरोधी दवाओं का उपयोग केवल संक्रामक रोगों को नियंत्रित करने या पशु चिकित्सा पर्यवेक्षण के तहत ही किया जाता है।
- पशुओं में रोगाणुनाशकों की आवश्यकता को कम करने और पौधों में रोगाणुनाशकों के उपयोग के विकल्प विकसित करने के लिए टीकाकरण करें।
- पशु और पौधों के स्रोतों से खाद्य पदार्थों के उत्पादन और प्रसंस्करण के सभी चरणों में अच्छी पद्दतियों को बढ़ावा देना और लागू करना।
- पशुओं की स्वच्छता, जैव सुरक्षा और तनाव मुक्त संचालन में सुधार के साथ टिकाऊ पद्दतियों को अपनाना।
- OIE, FAO और WHO द्वारा निर्धारित रोगाणुरोधी और दिशानिर्देशों के जिम्मेदार उपयोग के लिए अंतरराष्ट्रीय मानकों को लागू करना।
थनैला रोग का परंपरागत उपचार समय की आवश्यकता : भारत में थनैला रोग के कारण लगभग 480 करोड़ रूपये की प्रतिवर्ष हानि होती है। आर्थिक हानि होने के साथ-साथ पशुओं में थनैला रोग के उपचार में प्रयोग की जाने वाली आधुनिक औषधीयों में एंटीबायोटिक का उपयोग सबसे ज्यादा होता है जिस कारण रोगाणुरोधी प्रतिरोध सबसे ज्यादा देखने को मिलता है। बढ़ते रोगाणुरोधी प्रतिरोध के कारण विश्व जन स्वास्थ्य को लगातार खतरा बढ़ रहा है। अत: सरकार एवं समाज को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। इससे भी ज्यादा खतरा उपनैदानिक (Subclinical) थनैला रोग से है जो दूधारू पशुओं में सबसे अधिक पाया जाता है। ऐसे पशुओं से उत्पादित दूध के सेवन से मनुष्यों में सबसे अधिक खतरा रहता है। अत: रोगाणुरोधी औषधीयों की संवेदनशीलता एवं रोगाणुरोधी जीन की पहचान करना तथा पारंपरिक, उन्नत एवं आणविक (Molecular) तरीकों से पशुओं में थनैला रोग का उपचार इस दिशा में अच्छा कदम है। पारंपरिक उपचार में किसी भी आधुनिक औषधीयों का उपयोग नहीं (या कम) किया जाता है जिससे रोगाणुरोधी प्रतिरोध का जोखिम नहीं है। और इस प्रकार वैश्विक स्वास्थ्य खतरा भी नहीं (या कम) होता है।