डा. के.एल. दहिया
उपमण्डल अधिकारी (सेवानिवृत), पशुपालन एवं डेयरी विभाग, हरियाणा
विश्वभर में खाद्यान्न की कमी सदियों से समाज के लिए अज्ञात नहीं रही है। इस कमी का सबसे चरम रूप, अकाल, भी समाजों द्वारा अलग-अलग स्तरों पर अनुभव किया जाता रहा है। कुछ उल्लेखनीय उदाहरण ‘436 ईसा पूर्व से शुरू होते हैं, जब हजारों भूखे रोमन वासियों ने तिबर नदी में खुद को झोंक (Threw) दिया था; या कश्मीर में 918 ईस्वी में जब वितस्ता (झेलम) का पानी पूरी तरह से लाशों से भरा हुआ था, तो उसे देखना मुश्किल था; या चीन में 1933-37 में, जब हमें बताया गया कि केवल एक क्षेत्र में ही चार मिलियन लोग मारे गए थे; या भारत में 1770 में जब सर्वोत्तम अनुमानों के अनुसार 20 लाख से एक करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी; या आयरलैंड में 1945-51 में जब आलूओं के अकाल के कारण कुल आयरिश आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा मारा गया था और इतनी ही संख्या में लोगों को पलायन करना पड़ा था’ (Sen 1982)।
सभ्यता की शुरुआत से ही भारतीय कृषि ने महत्वपूर्ण प्रगति की है। हालाँकि, भारतीय इतिहास में कई ऐसे दौर रहे हैं, जब खाद्यान्न की कमी ने सभ्यता पर गंभीर प्रभाव डाला। स्वतंत्रता-पूर्व भारत में, कृषि जलवायु पर बहुत अधिक निर्भर रही है। प्रतिकूल मानसून, विशेष रूप से दक्षिण-पश्चिमी मानसून सूखे और फसल की विफलता का कारण बनता है। ऐसे सूखे, कभी-कभी लगातार वर्षों में अकाल का कारण बनते हैं। भारत में अकाल के कारण 18वीं, 19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में 30 मिलियन से अधिक लोगों की मृत्यु हुई (Pathak et al. 2022)।
भारत का सबसे भयावह खाद्य संकट 1943 में ब्रिटिश शासित भारत में हुआ था। इसे बंगाल अकाल के नाम से जाना जाता है, उस वर्ष पूर्वी भारत में अनुमानित 40 लाख लोग भूख से मर गए थे। प्रारंभ में, इस आपदा का कारण क्षेत्र में खाद्य उत्पादन में भारी कमी को बताया गया था। यह जारी रहा, यद्यपि ब्रिटिश शासक भारत से चले गये थे। 1937 में बर्मा (अब म्यांमार) से अलग होने के बाद भारत में खाद्यान्न की कमी हो गई। 1947 में उपमहाद्वीप के भारत और पाकिस्तान में विभाजन के बाद खाद्य समस्या और भी गंभीर हो गई, जिससे भारत के कृषि क्षेत्र के सामने कई चुनौतियां उत्पन्न हो गईं (Somvanshi et al. 2020)।
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